Kathadesh RSS Feed
Subscribe Magazine on email:    

लघुपत्रिकाएँ एवं साहित्यिक पत्रकारिता

(भारत भवन, भोपाल में लघु पत्रिकाओं से सम्बन्धित तीन दिवसीय परिसंवाद (12, 13 और 14 जून 2009) में संस्कृति सचिव मनोज कुमार श्रीवास्तव द्वारा दिये गये स्वागत एवं समापन भाषण)

स्वागत भाषण

मित्रो, ध्यान दें कि आज से 100 वर्ष पूर्व ‘हिन्दी प्रदीप’ का प्रकाशन बंद हुआ था. हम उसकी शतवार्षिकी मनाने के उद्देश्य से यह आयोजन नहीं कर रहे हैं. लेकिन प्रदीप का बुझना साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए एक सबक अवश्य था. यह ठीक था. कि ‘प्रदीप’ औपनिवेशिक शासन की प्रकट निष्ठुरता से, उस दौर में 3000/ की जमानत मांगने से बंद हुआ, लेकिन क्या वह आखिरी तिनका तो नहीं था. ‘प्रदीप’ के संपादक की व्यथा तो अपनों की उदासीनता में भी थी. उसने उनके मन में इतनी कड़वाहट, इतनी खटास भर दी थी कि उनकी संपादकीय भाषा भी तिक्त हो चली थी. ”उन चांडाल महापतियों को कौन सी उपाधि दें जो बरसों तक बराबर पत्रा गटकते गए, मांगते-मांगते हैरान हो गये, पर मूल्य न पाया.“ ”और हरामी पिल्लों की जथा अलबत्ता जुदी है, जिनका मनसूबा यही रहता है कि साल भर पत्रा लेने के उपरान्त निबुआ नोन चटा देंगे.“ यह लगभग गाली देने जैसी स्थिति थी. इसकी ठीक तुलना में मुझे श्रेवपोर्ट टाइम्स की याद आती है, वहां प्रबंधन ने निर्णय लिया कि ‘द टाइम्स’ आगे से समीक्षाएं नहीं करेगा. संपादक ने कहा कि कला-साहित्य की कवरेज नहीं घटेगी, लेकिन 34 साल से चली आ रही समीक्षाएं बंद की जाती हैं. चिट्ठियों और ई-मेल और प्रदर्शनों की बाढ़ आ गयी. प्रबंधक संपादक उन्हें ‘धमकियां’ और ‘गालियों’ के रूप में देखते रहे जब तक कि समीक्षक लेन क्राकेट जो 34 वर्षों से समीक्षा करते आये थे, ने त्यागपत्रा न दे दिया. बाद में उनसे खुन्नस निकालने पर तुले संपादक को भी ‘टाइम्स’ से जाना पड़ा और समीक्षाएं बहाल हुईं. लेकिन भारत में पाठकीय सक्रियता सिर्फ पत्रिका खरीदकर पढ़ने में ही दिख जाये तो संपादक कृतार्थ हो जाये. जो शिकायत कभी हिन्दी ‘प्रदीप’ या ‘ब्राह्मण’ पत्रिका के संपादक करते थे, वही अब काल-कवलित ‘पहल’ के संपादक कर रहे हैं. हमारे देश में लघु पत्रिका की, साहित्यिक पत्रिका की स्थिति तब से अब तक कितनी सुधरी है. पाठक का उसका जनपद कितना स्व-संभर हुआ है क्यांेकि स्वयं उसकी स्वायत्तता स्व-संभरता से जुड़ी हुई है. 1909 का महत्व इस रूप में भी था कि जब ‘प्रदीप’ बुझा था तो ‘इन्दु’ की किरणें बिखरने लगी थीं. जयशंकर प्रसाद की इस लघु पत्रिका के भी सौ वर्ष हुए हैं. 1909 में ही हरिद्वार से ‘भारतोदय’ और काशी से ‘नवजीवन’ नामक हिन्दी साहित्यिक मासिकों का प्रकाशन शुरू हुआ था. इन सौ वर्षों में हिन्दी की साहित्यिक पत्राकारिता और पत्रिकाएं क्या अस्तित्व बचाए रखने की उन्हीं आदिमूल समस्याओं से जूझ रही हैं या कुछ चीजें सामने आई हैं.

क्या साहित्यिक पत्राकारिता आज के समय की एक नैतिक साक्षी मात्रा है? क्या साहित्यिक पत्राकारिता एक निबंध है या एक कमेन्ट्री? क्या साहित्यिक पत्राकारिता तथ्यों के ऐतिहासिक या राजनैतिक टेक्स्ट को हटाकर उनकी एक एसेंशियलिस्ट फ्रेमवर्क में व्याख्या है? या वह ऐसी पत्राकारिता है जिसमें सब्सटेंस से ज्यादा शिल्प को महत्व है? मुझे याद आता है कि 1890 के दशक में एक समाचार पत्रा के संपादक लिंकन स्टीफेन्स ने अपने रिपोर्टर अब्राहम कहान को एक घटना की रिपोर्ट लिखने के लिए कहा: भ्मतमए ब्ंींदए पे ं  तमचवतज जींज ं उंद ींे उनतकमतमक ीपे ूपमिए ं तंजीमतए इसववकल ींबामक.नच बतपउमण्ण्ण् ज्ीमतमश् ं ेजवतल पद पजण् ज्ींज उंद सवअमक जीम ूवउंद ूमसस मदवनही वदबम जव उंततल ीमत ंदक दवू ीम ींे ींजमक ीमत मदवनही जव बनज ीमत ंसस जव चपमबमेण् प् िलवन बंद पिदक वनज रनेज ूींज ींचचमदमक इमजूममद जींज ूमककपदह ंदक जीपे उनतकमतए लवन ूपसस ींअम दवअमस वित लवनतेमस िंदक ं ेीवतज ेजवतल वित उमण् ळव दव दवूए जंाम लवनत जपउमए ंदक हमज जीपे जतंहमकलए ंे ं जतंहमकलण् स्टीफन की यह सलाह, इसके पीछे के अभिप्राय स्पष्टतः साहित्यिक थे.

रोन रोसेनबम ने ठीक ही कहा था किµस्पजमतंतल रवनतदंसपेउ पेदजश् ंइवनज सपजमतंतल सिवनतपेीमेए पज पेदश्ज ंइवनज सपजमतंतल तममितमदबमे स्पजमतंतल रवनतदंसपेउ ंज पजे इमेज ंेो जीम ुनमेजपवदे जींज सपजमतंजनतमे ंेोरू ंइवनज जीम दंजनतम व िीनउंद दंजनतम ंदक पजे चसंबम पद जीम बवेउवेण् तो इस तरह एक ओर साहित्यिक पत्रिकाएं और पत्राकारिता अपने आप में अध्ययन की विषय वस्तु हैं, दूसरी ओर हमें उन तौर तरीकों पर भी गौर करना चाहिए जिनके जरिए वे किसी कृति या साहित्यांदोलन को फ्रेम करती हैं. कई बार ये पत्रिकाएं एक तरह की डबल प्लीडिंग के चलते एक साहित्यांदोलन तो क्या, एक राजनीतिक आंदोलन को भी चलाती रही हैं. क्यों हमें कई बार लगता है कि कुछ साहित्यिक पत्रिकाओं में एक तरह की रैटारिकल सिचुएशन अंतर्निहित सी है. क्या वे एक तरह की वृत्त पत्रिकाएं हैं? कि पहले पत्रिकाएं व्रतधर्मा थीं और अब की वृत्तधर्मा. कि एक कोटरी है, उन्हीं के द्वारा, उन्हीं के लिए? या वे ऐसी पत्रिकाएं हैं, जो अपनी वैचारिक इंटीग्रिटी को किसी  भी प्रतिकल्पी विचार की छूत से सुरक्षित रखे हुए हंै. कि वे एक केन्द्राभिमुखी पत्रिकाएं हैं जो विमर्श के किसी खास ‘स्ट्रेन’ को ही प्रोत्साहित करती हंै और प्रायः एक बहुत ही शक्तिशाली संपादक के द्वारा प्रेस्क्राइब्ड क्रम में ही काम करती हैं? कि उसके माध्यम से संपादक को भी एक प्राधिकार-पद, एक सीट आॅफ अथारिटी मिल जाती है? कुछ स्वीकारने और खारिज करने की’ या कि वे एक तरह के वैचारिक एन्ट्रेप्रेन्योरशिप की प्रमाण हैं? मध्यवर्ग की प्रवक्ता? ऐसे कई सवाल हैं जो लघु पत्रिकाओं के सामने हैं. हमने यह प्रसंग ऐसे ही कई सवालों का सामना करने और उनके मुंह तोड़ जवाब ढूंढने के लिए किया है. इस प्रसंग के दौरान पत्रिका के जनपद की बात तो होगी ही लेकिन पत्रिका का एक नेपथ्य भी है जिसमें बहुत कुछ अघट रहता है लेकिन जिसके भूमिगत रहते हुए भी लघु पत्रिकाएं और उनकी टीमें न सिर्फ अर्थाभाव से बल्कि अनेक तरह के प्रभावों के बीच हर बार अपने संकल्प की जीत दर्ज करती हैं. वहां सब एकतरफा नहीं हैµयह नहीं कि सिर्फ संपादकीय अधिनायकत्व है बल्कि तीखी बहसें हैं ऐसी बहसें जो बड़ी पत्रिकाएं नहीं कर रही हैं, बड़े अखबार नहीं कर रहे हैं, बड़े चैनल नहीं कर रहे.

साहित्यिक पत्राकारिता के लिए इन जगहों में स्थान क्रमशः सिकुड़ता जा रहा है. यदि वहां कवरेज है भी तो वह ईवेन्ट की घटना की कवरेज है, साहित्य की नहीं. ये मुख्यतः एपिसोडिक पृष्ठ हैं जिनके पीछे कोई विजन नहीं है. वहां अधिकांश विवरण मुख्य अतिथि और अध्यक्ष और विशिष्ट अतिथियों के तथा स्वागत और आभार की औपचारिकताओं को पूरा करने वालों के नामोल्लेख में ही खप जाता है और एक-एक दो-दो पंक्तियोें में इन प्रमुख हस्तियों के श्रीमुख से निकले उद्गारों को उद्धृत कर संवाददाता अपना काम निपटा लेता है. साहित्य को खेल पृष्ठों पर जितनी जगह नहीं मिलती. खेल प्रतिदिन की चीज हैं, और उन्हें सिर्फ मेट्रो या नगर या राजधानी के पृष्ठ पर नहीं होना है. यह ‘आदर’ तो साहित्य और संस्कृति के लिए सुरक्षित है. कहने वाले कहते हैं कि साहित्य का सृजन होता होगा प्रतिदिन, लेकिन वह सार्वजनिक तो नहीं है. खेल सार्वजनिक रूप से घटते हैं. साहित्य भीतर ही भीतर कहीं रचा जा रहा होता है. लेकिन इस तर्क का लाभ यह मीडिया कैसे ले सकता है जो जब तब लोगों के अंतरंग में निजत्व में झांकता रहता है. यानी साहित्य का सांस्कारिक अंतरंग नहीं झांकेंगे, लेकिन लोगों की ‘बेस’ मनोवृत्तियों को गुदगुदाने के लिए शयनकक्ष में भी झांकना पड़े तो एक पल नहीं हिचकिचाएंगे. वे गाॅसिप, स्कैंडल और मनगढ़ंत स्टोरीज करेंगे, लेकिन साहित्यकार की कथाओं पर नाक-भौं सिकोड़ेंगे. शायद इसीलिए कि वे कथाएं ही हैं, जबकि इन स्टोरीज को सच की तरह पेश किया जा सकता है. ये वे सब पहचानेंगे कि इन कथाओं में अपनी तरह का सच है.

दूसरे इन जगहों में साहित्य कवरेज की संवदेनशीलता की अपनी विडंबनाएं हैं. क्या मुख्यधारा मीडिया में फिल्मों बाॅलीवुड की कहानियाँ/खबरों को जितना स्थान मिलता है, उतना साहित्य के लिए कभी हो पाएगा? मुख्यधारा की मजबूरियां हम समझ नहीं पाते हैं. वहां विशेषता के लिए बहुत कम स्थान है. वहां बीट सिस्टम है और आज जो अपराध संवाददाता है, कल को वह ‘सिटी’ की बीट पर भी हो सकता है, उनकी यह बीट थाने के सिपाही की बीट से अलग नहीं है और अलग-अलग क्रिया क्षेत्रा उनके लिए सिर्फ भौगोलिक  परिवर्तन का प्रतिनिधित्व करते हैं, कलागत जेस्चर, डिक्शन और संवेदनात्मक परिवर्तनों  का नहीं. बल्कि दृश्य मीडिया में तो बीट तक नहीं है. वहां का संवाददाता तो अपनी बहुमुखी और सर्वव्यापी प्रतिभा से सभी को बीट करता है. अखबारों में संस्कृति और शो बिजनेस में फर्क की तमीज भी सीमित है. प्रायः जिस पृष्ठ पर कोई सेलिब्रिटी होगी, उसी पर साहित्य और सरीब्रल स्टोरी भी चिपकी मिलती है.
इन सब अनुभवों के बीच यह जरूरी लगता है कि लघु पत्रिका ही साहित्यिक पत्राकारिता के लिए मुक्ति का मार्ग है. कोई आश्चर्य नहीं कि हिन्दी की कदाचित् पहली साहित्यिक लघु पत्रिका ‘कवि वचन सुधा’ का जन्म 1867 में उसी 15 अगस्त के दिन हुआ था जिस दिन 80 साल बाद भारत की मुक्ति होनी थी. जिस सुभद्राकुमारी चैहान ने ‘नारी’ नामक साहित्यिक लघु पत्रिका निकाली, उनका जन्म भी 15 अगस्त को हुआ था. ‘कविवचन सुधा’  के प्रवेशांक में भारतेंदु ”स्वत्व निज भारत गहै“ की बात कहकर इसी मुक्तिµधर्म की ओर इशारा किया था. 8 अंकों तक इसके प्रकाशन के बाद भारतेंदुजी ने ‘हरिश्चंद्रµ चंद्रिका’ निकालने लगे जिसमें पुनः ”स्वाधीनता करो संपादन भारत जै उचरोरी“ की पंक्ति ”होरी गीत“ में आई है.  संपादन की स्वाधीनता साहित्यिक लघु पत्रिकाओं की आधार भूत तृष्णा है. आज जबकि मीडिया कारपोरेट स्वार्थों का बंधक- सा बन गया है, ये लघु पत्रिकाएं अभी तक उस संपादकीय स्वातंत्रय की बुनियादी प्रतिज्ञा का निर्वहन कर रही हैं.

सत्ता और साहित्यिक पत्रिकाओं के संबंध भी द्वैधात्मक रहे हैं. 1873 में प्रकाशित ‘हरिश्चंद्र मैग्जीन’ की 100 प्रतियां सरकार खरीदती थी, जबकि ‘हिन्दी प्रदीप’  सरकार का कोपभाजन बनने के कारण बंद हो गयी. क्योंकि उन्होंने माधव शुक्ल की कविता ‘बम क्या है’ छाप दी थी. सरकारी सहायता पर निर्भरता के जहां तात्कालिक लाभ होते हैं तो वहां उसके कुछ नुकसान भी हैं. खासकर तब जबकि लाभों का वितरण औपनिवेशिक हितों के मद्देनजर यदृच्छया किया जाता हो. ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ और ‘बाला बोधिनी’ को सरकारी सहायता बंद हो गयी तो ये पत्रिकाएं आर्थिक संकट में घिर गयीं और बंद हो गयीं. लेकिन एक स्वतंत्रा और सभ्य देश में लघु पत्रिकाओं या साहित्यिक पत्रिकाओं की उपेक्षा किसी सरकार की विश्वसनीयता को नहीं बढ़ाता. कनाडा में लघु पत्रिकाओं के लिए एक मैगजीन फंड है. इसके अंतर्गत दी जाने वाली सहायताओं के चार भाग हैं: एक, कला एवं साहित्यिक पत्रिकाओं को समर्थन, दो संपादकीय लागतों के लिए  फार्मूलाधारित फंड, तीन पत्रिका प्रकाशकों के व्यापारिक विकास के लिए समर्थन. इसके अंतर्गत सर्कुलेशन वृद्धि तक के लिए प्रोत्साहन राशि दी जाती है और चार, पत्रिका उद्योग विकास के लिए समर्थन जिसके तहत प्रकाशक संस्थाओं और समूहों को मदद दी जाती है. इसके अलावा एक पब्लिकेशंस असिस्टेंस प्रोग्राम है जो पत्रिकाओं को डाक से भेजने के खर्चों का मुजरा निश्चित करता है. इन सबके लिए कम से कम एक साल का प्रकाशन आवश्यक है किन्तु ऐसा नहीं है कि नवोदित पत्रिकाओं को स्थान नहीं है. उसके लिए कनाडा कौंसिल फाॅर द आटर््स संस्था सीड ग्रांट देती है. ‘डीम्ड पोटेंशियल’ के आधार पर संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में हृयू फाॅक्स ने ‘द कमिटी आॅफ स्माल मैगजीन एडीटर्स एंड पब्लिशर्स 1975 में स्थापित की थी ताकि छोटे प्रकाशनों की ऊर्जाओं को संगठित किया जा सके. संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में नेशनल एंडाउमेंट फाॅर दा आटर््स ने एक ‘कोआर्डिनेटिंग कौंसिल आॅफ लिट्रेरी मैगजीन्स’ गठित की है ताकि इन साहित्यिक प्र्रकाशनों को समर्थन राशि वितरित की जा सके. अमेरिका में पुलित्जर पुरस्कारों का एक वर्ग इन साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों पर पुरस्कार देता है. इसके अलावा ओ. हेनरी अवाडर््स भी ऐसे लेखों में से चुनिंदा को पुरस्कृत करता है. हमें यह देखना होगा कि क्या हमारे देश में इस तरह की पहलों की कोई गुंजाइश निकल सकती है अथवा उसकी कोई साहित्यकार के आत्माभिमान को ठेस पहुंचाये बिना कोई आवश्यकता भी प्रतीत होती है. हमारा यह विमर्श-प्रसंग इन बहुत से वैचारिक और व्यावहारिक द्वंद्वांे और तनावों को साक्षात्कृत करने के लिए उद्यत है.

समापन भाषण

लघु पत्रिकाओं के नेचर और नियति पर इतना व्यापक और विस्तृत विमर्श मेरी ज्ञात स्मृति में तो देश में कहीं नहीं हुआ. मैं यह स्पष्ट कर दूं कि यह आयोजन विमर्शात्मक प्रकृति का था और इसकी सफलता-असफलता का यदि कोई पैमाना हो सकता है तो इसमें हुए विमर्श की इंटेसिटी और रेंज से ही तय हो सकता है. कुछ मित्रों ने एक टी.वी. चैनल पर यह कहा कि कार्यक्रम असफल है क्योंकि दर्शक दीर्घा खाली है. मैं उन मित्रों से यही कहूंगा कि वसुधा सुधा के लिए है, विष-वमन के लिए नहीं. जिनके स्वयं के आयोजनों में गोष्ठियों की कोष्ठबद्धता का रोग हो, वे हम पर ‘संख्या’ मूलक आरोप लगाएं, यह विडम्बना ही है. हमारा यह विमर्श प्रायः भुक्तभोगियों का विमर्श था. इसके आलोचकों की विडम्बना ही है कि वे प्रतिभागी की भूमिका में उपस्थिति का विकल्प चुनने की जगह श्रोता होने का विकल्प चुनें और इस विमर्श में बौद्धिक कांट्रीब्यूशन देने की जगह टी.वी. चैनल पर साक्षात्कार दें. मनुष्य अपने निर्वाचन का, अपने वरण का संपूर्ण स्वातंत्रय रखता है लेकिन उसका चयन उसका चरित्रा भी है, उसका द्योतक भी.
उनका कहना है कि हमने इस गोष्ठी में चुन चुनकर बुलाया है. 4500 पत्रिकाओं में से सभी को को तो बुलाया भी नहीं जा सकता था. हम विमर्श कर रहे थे, आमसभा नहीं. लेकिन बुलाया हमने अशोेक वाजपेयी जी, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, रमणिका गुप्ता, जाबिर हुसैन, वंशी माहेश्वरी, शंकर जी को ही नहीं बल्कि श्री ज्ञानरंजन, कमला प्रसाद, गिरधर राठी, रमेश उपाध्याय, नंदकिशोर नवल, अरुण कमल, राजेन्द्र यादव, शंभुनाथ जी को भी था. कुल 57 लोगों में से 18 नहीं आए, 39 आए हैं. जो आए हैं, वे लघु पत्रिका की दुनिया में लघु नाम नहीं हैं. जो नहीं आए, उनकी अनुपस्थिति की परिस्थिति रही होगी या मनःस्थिति, मैं नहीं कह सकता मैं कोई मोटिव्स इम्प्यूट नही करना चाहता. लेकिन जो बुलाए नहीं जा सके, उनके प्रति निरादर का या उनकी अवमानना का कोई भाव हमारे मन में नहीं हैं. कुछ के संदर्भ में तो हमारा पुराना अनुभव खराब रहा है. वे बुलाए जाते हैं और वे स्वयं गैरमौजूद होना चुनते हैं, और वे ही अपनी सुविधा के प्लेटफार्म से अपने कैप्टिव आडिएंस के सामने भारत भवन पर एकांगी होने का आरोप लगाते पाए जाते हैं. किसी दिन मैं ऐसे बंधुओं पर सूची सहित एक लेख लिखने के मूड में हूं. भारत भवन सभी का सम्मान करता है और सभी के इस सम्मान में आत्म सम्मान भी शामिल है. जिन कुछ को अभी नहीं बुलाया जा सका तो हम आगे बुला लेंगे. यह तो इस तरह का पहला प्रयास था, लेकिन लघु पत्रिकाओं की नियति पर यह कोई वन-आॅफ ईवेन्ट नहीं है. यहां से मुमकिन है कि शुरुआत हुई हो लेकिन यहां से यह मुमकिन कतई नहीं कि खात्मा लगा दिया गया हो. भारत भवन शिविरों में विश्वास नहीं करता. शिविर युद्ध के लिए होते हैं हम सृजन के लिए हैं. साहित्य में शिविरों ने युद्ध किया न किया हो, गृहयुद्ध जरूर किए हैं. और कई बार ये वार्स उतनी सिविल भी नहीं रही हैं, खासी गाली गलौच में परिणत हो गई हैं. साहित्यिक पत्राकारिता ‘सहित’ की भावना की पत्राकारिता है.
‘सहित’ की इसलिए क्योंकि लघु के लिए महानिगमों के इस युग में जगह तंग होती जा रही है. पावर पिरैमिड के शीर्ष से एक महाध्वनिµएक सिंूसमेेसल पदसिमबजमक अवपबमµकी बूम ने जैसे सारा स्पेस भर दिया है और ऐसे में बया का कलरव भी या बीणा का स्वर भी या सदाµए उर्दू की सदा भी कहीं जरूरी है, यह ध्यान नहीं-सा रह गया है. बड़ा मीडिया पहले तक स्वतंत्रा साक्षी हुआ करता था, आज तो वह निगमित और प्रतिष्ठिानित महाध्वनि का एक बवदकनपज भर है. बड़े मीडिया के हिमालयी दंभ और उसमें प्रच्छन्न और प्रकट इनबबंदबबत बंचपजंसपेउ  के बीच ”युद्धरत आम आदमी“, यदि मैं रमणिका गुप्ता की लघु पत्रिका का नाम उधार लूं, पाता है कि लघु पत्रिकाएं और उनके समर्थक विचार की धारा का गृहयुद्ध लड़ रहे हैं, उसके अस्तित्व का संघर्ष नहीं जबकि ये लघु पत्रिकाएं शिक्षित की ‘स्नाॅब वैल्यू’ को संतुष्ट करने के लिये नहीं हैं, छोटे आदमी का साथ देने के लिए हैं. कल कोई कह रहा था कि ‘लघु पत्रिका’ कभी आंदोलन नहीं रही. कभी बांग्ला में देखें कि ”हंग्री जेनरेशन“ और ”लघु पत्रिकाओं“ के विस्फोट बीच क्या अन्तर्सम्बन्ध रहा? लघु पत्रिकाएं तब तक हैं जब तक कि समाज में बड़े और छोटे के अमानुषिक और वल्गर भेदभाव हैं. लघु होना विजयी होने में तभी परिणत होगा जब भी हम साथ आएंगे. विन्सेंट वाॅन गाॅग के शब्दों में ळतमंज जीपदहे ंतम दवज कवदम इल पउचनसेमए इनज इल ं ेमतपमे व िेउंसस जीपदहे जवहमजीमतण् बात इसी की है. स्माल थिंग्स के ‘टुगेदर’ होने की, उनकी एक सीरीजµएक श्रृंखला बनाने की. छोटे आदमी का साथ सिर्फ ‘वाम’ ही देगा, यह खामखयाली छोड़ दें. ये काम वे भी करते हैं  जो वामनावतार की पूजा करते हैं और जिनके लिए ‘स्माल इज ब्यूटीफुल’ है. याद रखें शूमाखर ने यह पुस्तक बुद्ध से प्रभावित होकर लिखी थी, माक्र्स या लेनिन या ट्राॅटस्की से प्रभावित होकर नहीं.

अब कुछ काम की बातें कर लें. इस सेमीनार में हमने देखा कि लघु पत्रिकाओं की हिन्दी में कुल संख्या कितनी है, इस विषय पर ही मतैक्य नहीं है और इंप्रेशन की रेंज 450 से लेकर 4500 तक है. यह यह बहुत बड़ा मीन डिविएशन पैदा करता है. वैसे साढ़े 4 हजार होना भी कोई बहुत बड़ी बात नहीं है. अकेले टोरन्टों शहर में साहित्य और संस्कृति पर केन्द्रित साढ़े आठ हजार लिटिल मैगजीन्स छपती हैं, तो 50 करोड़ के हिन्दी जनपद में साढ़े 4 हजार भी कौन सी बड़ी बात है? सवाल यह है कि क्या हम एक बारगी इस फिगर को फर्मµअपना कर लें? डस्टबुक पब्लिशिंग के संपादक और संस्थापक लेन फुल्टन ने 1970 के दशक में यह काम पहली बार अंगे्रजी की अमेरिकन पत्रिकाओं के लिए किया कि उसने ”लघु पत्रिकाओं और उसके संपादकों की, पहली ‘रियल लिस्ट’ असेम्बल कर प्रकाशित की. इससे लेखक को प्रकाशन पिक एंड चूज करने की स्वतंत्राता मिली. उसके चयन का क्षेत्रा व्यापक हो गया. इन स्वतंत्रा प्र्रकाशनों की अपजंसपजल से भी एक वृहत्तर समुदाय को परिचित कराया जा सका. तो पहला काम इन पत्रिकाओं की अविकल लिस्टिंग का है. क्या कोई हिन्दी का लेन फुल्टन बनना चाहेगा या यह काम सप्रे संग्रहालय या माखनलाल चतुर्वेदी पत्राकारिता विश्वविद्यालय के सुपुर्द किया जाए?“
दूसरे, कार्यक्रम के स्वागत भाषण में मैंने हृयू फाॅक्स के द्वारा संस्थापित ”कमिटी आफ स्माल मैगजीन एडीटर्स एंड पब्लिशर्स“ की चर्चा की थी. क्या यह काम कोई करना चाहेगा? उत्तम तो यह होता कि ये पत्रिकाएं फेडरेट होतीं ताकि इनके सम्मिलन की सिनर्जी का इस्तेमाल होता. ये एक प्रेशर-ग्रुप या लाॅबी की तरह काम करतीं. यदि ये परिसंघ नहीं बना सकती, यदि वाम-बहुलता के बाद भी इनका टेªड-यूनियनिज्म विकसित नहीं हुआ, न होना चाहता है तो हृयू फाॅक्स की तरह की समिति ही बेहतर होगी.
तीन, क्या राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार के संस्कृति विभाग को कनाडा, यू.एस.ए., यू.के. इन पत्रिकाओं के संरक्षण, प्रोत्साहन और विकास के लिए सपोर्ट मनी वितरित करने की कोई नीति बनाने के लिए आग्रह करना उचित होगा? क्या वर्तमान में सांस्कृतिक संस्थाओं को अनुदान के लिए विभिन्न राज्य सरकारों के संस्कृति विभाग के चालू नियमों का इष्टतम इस्तेमाल ये पत्रिकाएं कर पा रही हैं.

चार,  क्या इन पत्रिकाओं में से जो त्रौमासिक, छमाही या अनियतकालिक हैं, उनकी भी निःशुल्क मेलिंग की सुविधा देने का आग्रह केन्द्र सरकार के संचार विभाग से करना उपयुक्त होगा.

पांचवाँ, क्या राज्य तथा केन्द्र सरकार से यह आग्रह करना उचित होगा कि ओ. हेनरी अवाड्र्स तथा पुलित्जर पुरस्कारों के एक वर्ग की तरह वे सभी साहित्यिक पत्रिकाओं में छपे सर्वश्रेष्ठ वर्क के लिए पुरस्कार घोषित करें.

छठवां, क्या साहित्यिक पीरियोडिकल्स की एकीकृत वेबसाइट के निर्माण का काम हाथ मंप लिया जाए. इसके लिए बड़ा डाटाबेस और हिन्दी लघु पत्रिका जगत का बड़ा सहयोग जरूरी होगा. विचार यह है कि जिस तरह से डेविडसन काॅलेज के बच्चों ने अपने शैक्षणिक पाठ्यक्रम के एक प्रोजेक्ट ”वेब आफ मार्डनिज्म“ के अंतर्गत ऐसा बड़ा प्रयास अंगे्रजी लघु पत्रिकाओं के लिए सफलतापूर्वक कर दिखाया और आज यह साइट उनके द्वारा होस्ट और मेंटेन की जाती है, वैसे ही हमारे यहां भी लघु पत्रिकाएं एक संेट्रल एक्सोसिबल लोकेशन पर प्राप्त की जा सकें. जिन लघु पत्रिकाओं की अपनी वेबसाइट है, उनकी हाइपरलिंक दी जा सकती है और बाकी पत्रिकाओं की प्रतियों की साॅफ्ट कापी प्राप्त की जा सकती हैं.

सातवें, क्या राज्य सरकारों से आग्रह किया जाए है कि मध्यप्रदेश और दिल्ली की सरकारों की तरह वे भी अपने जनसम्पर्क या सूचना-प्रचार विभाग से लघु पत्रिकाओं को विज्ञापन-समर्थन की एक सुस्थिर नीति घोषित करें. मध्यप्रदेश सरकार ने पिछले तीन वर्षों में 5 करोड़ रु. से अधिक के विज्ञापन देश भर की विभिन्न लघु साहित्यिक पत्रिकाओं को दिए हैं. दिल्ली में गत वर्ष से यह किया जा रहा है. अब अन्य राज्यों को भी इस दिशा में पहलकदमी करनी चाहिए.

आठवें, क्या केन्द्र सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से इस बात का आग्रह किया जाना चाहिए कि इन पत्रिकाओं की विशेष प्रकृति को देखते हुए इन्हें डी.ए.वी.पी. के विज्ञापन देने में इनके सर्कुलेशन को आधार न बनाकर इनकी साहित्यिक गुरुता को आधार बनाया जाए. संख्या का नहीं, सांख्य को. मध्यप्रदेश में साहित्य, संस्कृति, खेलकूद, विज्ञान प्राविधिकी पत्रिकाओं को सर्कुलेशन के नार्म से उन्मोचन दिया गया है.

नवें, क्या स्वयं ये पत्रिकाएं स्वयं को पंजीकृत नहीं कर सकतीं सोसायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट के तहत? ऐसा करने पर केन्द्र और राज्य सरकार की बहुत सी योजनाओं के अंतर्गत लाभ की पात्राता उनमें आ जाएगी.

दसवें, क्या सप्रे संग्रहालय लघु पत्रिकाओं की वैसी ही मगींनेजपअम लाइब्रेरी बना सकता है जैसी कि संदीप दत्ता ने 23 जून 1978 को कलकत्ता में बनाई है. दरअसल संदीप दत्ता को इस विमर्श में बुला न पाने का का मुझे बेहद अफसोस है. उन्होंने 50,000 लघु पत्रिकाओं की यह लाइबे्ररी दो कमरों में बनाई है. क्या ऐसा कोई प्रयास हिन्दी संसार मेंµ बवूइमसज मेंµहो सकता है? क्या इन पत्रिकाओं का कोई डिजिटलाइजेशन किया जा सकता है और एक वर्चुअल लाईब्रेरी आर्काइविंग की पूरी सुविधा के साथ बनाई जा सकती है?

ग्यारहवें, प्रायः यह देखा गया है कि साहित्यिक और सांस्कृतिक मामलों में हमारा जितना ध्यान साहित्यकार या कलाकार पर रहता है, उतना सहृदय या पाठक पर नहीं. क्या हम जिस तरह से कार्यक्रमोें में कलाकार या साहित्यकार को बुलाने में दिमाग खर्च करते हैं, वैसे ही कभी आडिएंस प्लानिंग या रीडरशिप प्लानिंग के लिए हम लोग मन में किसी तरह की कुंठा या संकोच लाए बिना स्वयं को केन्द्रित कर सकेंगे.

बारहवें, क्या लघु पत्रिका संस्कृति को विकसित करने के लिए लघु पत्रिका बुक फेयर और प्रदर्शिनियां नियमित रूप से आयोजित करने के लिए सरकारों को कहना उचित होगा.

तेरहवें, क्या राज्य और केन्द्र सरकारों के ऐसे विभागों जिनमें पुस्तकों और पत्रिकाओं की खरीद होती है, से यह आग्रह करना उचित होगा कि वे इन लघु पत्रिकाओं को भी नियमित रूप से खरीदकर विद्यार्थियों और पाठकों को उपलब्ध करवायें, प्रत्येक प्रदेश में इतने स्कूल हैं कि कभी महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाएं दो दो हजार प्रतियां में तो खरीदी ही जा सकती हैं.

चैदहवें, क्या लघु पत्रिका आन्दोलन से संबंधित कुछ ऐसे पहलू अभी भी बाकी रह गये हैं कि जिन पर केन्द्रित एक ऐसा ही विमर्श प्रसंग अगली बार भारत भवन में आयोजित किया जा सके.

पन्द्रहवें, यदि इन बिन्दुओं पर व्यापक सहमति हो तो क्या हम इसे भारत भवन मेनीफेस्टो का फाइनल शेप दे दें. 

More from: Kathadesh
853

ज्योतिष लेख

मकर संक्रांति 2020 में 15 जनवरी को पूरे भारत वर्ष में मनाया जाएगा। जानें इस त्योहार का धार्मिक महत्व, मान्यताएं और इसे मनाने का तरीका।

Holi 2020 (होली 2020) दिनांक और शुभ मुहूर्त तुला राशिफल 2020 - Tula Rashifal 2020 | तुला राशि 2020 सिंह राशिफल 2020 - Singh Rashifal 2020 | Singh Rashi 2020